घर के लिए नारी चटनी सी पिसती रही
चटाखे सब लेते रहे सिल धो धो पीती रही
पीस पीस कर जिन्दगी खुद सिल सी हो गई
जरा जरा कर खुद भी संग संग पिसती रही
चाहत की अग्नि मैं पतीले सी जलती रही
जठराग्नि को सबकी तृप्त करती रही
आटे सी है हर दम गुंथती रही
नमी आंख की तवे पर छनकती रही
कंगन की हथकड़ियों मैं बंधती रही
हर फेरे के साथ जंजीर कसती रही
कर्तव्यों की बेड़ियाँ पहनती रही
रिहाई की अर्जी से कूड़ेदान भारती रही
चटाखे सब लेते रहे सिल धो धो पीती रही
पीस पीस कर जिन्दगी खुद सिल सी हो गई
जरा जरा कर खुद भी संग संग पिसती रही
चाहत की अग्नि मैं पतीले सी जलती रही
जठराग्नि को सबकी तृप्त करती रही
आटे सी है हर दम गुंथती रही
नमी आंख की तवे पर छनकती रही
कंगन की हथकड़ियों मैं बंधती रही
हर फेरे के साथ जंजीर कसती रही
कर्तव्यों की बेड़ियाँ पहनती रही
रिहाई की अर्जी से कूड़ेदान भारती रही