Monday 21 November 2016

माँ बड़ी प्यारी है

कहने को माँ बड़ी प्यारी है
ईश्वर का रूप दुनिया में न्यारी है
बूढ़ी होने पर माँ नहीं सुहाती
पत्नी ही अच्छी जब वह घर में आ जाती
उसकी ही आवाज अच्छी लगती है
माँ तो करेले का रस लगती है
सुबह दिखजाये तो दिन भारी है
कहने को माँ बड़ी प्यारी है

घर को सबने बाँट लिया
अच्छा अच्छा छाँट लिया
माँ के सबने छोड़ दिया
उससे मुँह का मोड़ लिया
बूढ़ी माँ जिम्मेदारी है
कहने को माँ बड़ी प्यारी है

माँ तो बस तभी याद आती है
जब तस्वीर पर माला चढ़ जाती है
जब तक माँ प्यार से पकाती रही
तब तक घर में सुहाती रही
बूढ़ी माँ की एक रोटी भी भारी है
कहने को माँ बड़ी प्यारी है



Saturday 19 November 2016

पीड़ा की पीड़ा



पीड़ा की पीड़ा


                  रसवन्ती के नयनों में
                      जल की दो बूँद छलक आईं,
                            किसने उनमें करुणा देखी
                                  किसने देखी है रुसवाई।

                      कवि ने देखी मादक हाला
                         अमृत से आपूरित प्याला,
                             छलछल आल्हादित हृदय लिये
                                 मुखरित उनकी कविता माला।

                     तूलिका उठा उन मोती को
                              चित्रित कर दिया चितेरे ने,
                                     अमर क्षणों को कैद किया
                                          बदली पर बिन्दु ठहरने ने।

                      बार बार कुचले जाकर
                            जो दर्द निचोड़ा था दिल ने
                                  पीड़ा की उस पीड़ा को
                                         समझा था केवल नयनों ने।

                     आंचल में अपने सिमटा कर
                            पलकां से उसको सहलाया,
                                  प्यार भरा चुम्बन देकर
                                       फिर से दिल ही तक पहुँचाया ।



जीवन पंछी 

जीवन एक अकेला पंछी
व्यथित चकित भ्रमित सा
दूर गगन में जाये
अनंत दिगन्त कहॉं की माया
लौट डाल पर आये
डाल डाल पर किये बसेरा
कैसे जीवन पाये
माली फूलों के लगाता है
सींचता है पालता है
और काट कर बाजार में
बेच देता है
कसाई मुर्गा, सूअर, बकरी को
खिला खिला कर पालता है
और एक ही वार में काटता है
इसी तरह दुनिया में
इन्सान इन्सान को खा रहा है
ईश्वर अपनी सृष्टि को
अपनी कृति को खा रहा है
 धरती को देखते नहीं
 आसमां की बात करते हैं
 इंसान के लिये घर नहीं
 ईश्वर की बात करते हैं
 नेति नेति कह जिसको 
 रिषियों ने गाया है
 आज की दुनिया में
  एक कोठरी में पाया है
  दुनिया पर राज्य करने को
 पर्दे में उसको बांधा है
 खुद विशाल प्रांगण में बैठे
  उसे द्वार के पीछे बंद किया है।
   ईश्वर कहाँ हैं
   सोचते रह जाते हैं ।
   



  




एक वीर की मौत

 एक वीर की मौत

गहन अंधेरी रातों में
जंगल में छिपते जाते
भारत माँ की रक्षा को
प्राणों से प्राण मिलाते,
दुश्मन की हर आहट को
चौकन्ने बढ़ते जाते
जिनमें संसार बसा था
निद्रा के संग बह आते

बेटे को बाहों में घेरे
पत्नी उसे झुलाती हो
थपकी दे दे लोरी गा गा
वीरों की कथा सुनाती हो
उनकी बन्दूकों की मारें तब
दुश्मन का दिल दहलाती हो
मीठे सपने में खोई वह
निद्रा में मुसकाती हो

गोली की बौछारों को जब
वे झेल रहे होंगे तन पर
पति की स्मृतियों के अगनित
गीत मुखर हों अधरों पर
पति के अंकित स्पर्शो पर
धीरे से हाथ फिराती हो
एकांत क्षणों को जीवन दे
खुद ही फिर शरमाती हो।

जिस माँ ने दूध पिलाकर
सिर सहला बड़ा किया था


बेटे के दर्दांं को अपने
सीने पर सहन किया था
दर्दो से बेहाल वीर
बातें करता धड़कन से
माटी को सिंचित करता
 वह रक्त बिखरता केशों से

माँ की गोदी के ढूँढ़ ढूँढ़
धरती माँ से वह लिपट गया
पत्थर के तकिये पर सर रख
सूखे पत्तों पर, पसर गया
जिसकी सांसों से सांस बंधी
कब तार अचानक टूट गये
आहट भी तनिक मिली नहीं
कब सारे बंधन छूट गये
कब सारे बंधन छूट गये।





Friday 18 November 2016

समझो नेता बड़े हो गए

 कुर्सी हित ये जग बौराया
मैं आया बस मैं ही आया
चुन चुन कर देते हैं गाली
मैं उजला तेरी चादर काली
वादे पर वादे करते हैं
पा के कुर्सी कान न घरते
ढूंढ़ो ढूंढ़ो कहां हैं नेता
फिर ना कभी दिखाई देता
किसको बोट दिया तुम भूल
पांच साल वादों में झूल
जिनकी पहले सिकुड़ी काया
अब मोटा टकला चिकनाया
जिनकी पहले किस्मत फूटी
घर में केवल साइकिल टूटी
अब कारों का उनका बेड़ा
बातें करते कर मुँह टेढ़ा
बन जाये अब अनकी सरकार
बस खाकर ना लेये डकार
जिनका टूटा फूटा कमरा
उनके महल खड़े हो गये
जिनके, कपड़ें कड़क हो गये
समझों नेता बड़ें हो गये

Sunday 6 November 2016

मन

म न उड़ता चलता जाता है
कितने बाग समुंदर छूकर
मॉं के आंगन रुक जाता है
मन उड़ता चलता जाता है
बरसों पहले छोड़ दिया है
फिर भी अपना लगता है
घर के हर कोने में जाकर
झांक झांक कर रुकता है
मन
कभी पकड़ता मॉं का ऑचल
ठुनक गले लग जाता है
कभी पिता के पीछे जाकर
कांधे पर चढ़ जाता है
मन
कभी घूमता गलियॉं गलियॉं
सखियों के घर फिर आता है
गुडडे गुड़िया खेल खिलौने
खेल खेल कर बहलाता है
मन
क्यों पगला मन धूम घूम कर
बचपन ढूंढा करता है
पूरे जीवन का सच केवल
बचपन ही में मिलता है
मन

Saturday 5 November 2016

जात पांत

 आज जांत पात के
भेदभाव से ऊपर उठ रहे है
सब एक दूसरे के भाई है
यही नारे लगा रहे है
लेकिन क्या सच ही हमारे दिलों से
भेदभाव मिटाने का नारा लगा
हम अछूत ही मिटा रहे है
घृणा से तप्त हृदय लिये
और दूरी बढ़ा रहे है।



बुढापा



बचपन में, घर की टीन केछेदों में, से आती धूप देख
लगता चांद और सूरज ही
उतर आये, धरती पर
उन्हें पकड़ने की कोशिश करते
हथेली पसार लिया करते थे
उभर आये गोलों को
चांद और सूरज समझ
चहक उठा करते थे
यौवन में यही दुपहरी
अजब हुआ करती थी
सोने सी माटी चांदी सी 
धूप हुआ करती थी
दुनिया तो वही है लेकिन
जर्जर जीवन का यह कैसा मोड़
लगता है वे ही धूप के टुकड़े
धरती के हुआ है  श्वेत कोढ़।