Friday 6 October 2017

चटनी सी पिसती रही

घर के लिए नारी चटनी सी पिसती रही
चटाखे सब लेते रहे सिल धो धो पीती रही
पीस पीस कर जिन्दगी खुद सिल सी हो गई
जरा जरा कर खुद भी संग संग  पिसती रही
चाहत की अग्नि मैं पतीले सी जलती रही
जठराग्नि को सबकी तृप्त करती रही
आटे  सी है हर दम गुंथती रही
नमी आंख की तवे पर छनकती  रही
कंगन की हथकड़ियों मैं बंधती रही
हर फेरे के साथ जंजीर कसती रही
कर्तव्यों की बेड़ियाँ पहनती रही
रिहाई की अर्जी से कूड़ेदान भारती रही


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