Tuesday 31 August 2021

माँ



मैं  कितनी मजबूर हो गई

मैं कितनी मजबूर हो गई

अपने पन से दूर हो गई

जब तक थी छोटी अबोध मैं

नही जानती दुनियादारी

भोला मन था भोली बातें

सबको लगती थी मैं प्यारी

जैसे जैसे बड़ी हो गई

मै अपनांे से दूर हो गई

 मैं कितनी मजबूर हो गई।

मै हंॅसती तो दुनिया हंॅसती

उंॅगली पकड़ पिता की चलती

माॅ के आॅचल में छिपतेे

जितनी कितनी बड़ी हो गई

मैं कितनी मजबूर हो गई।

ईंट ईंट पर छाप पड़ी थी

जिस घर में मैं पली बड़ी थी

मैं घर की प्यारी गुड़िया थी

देवी थी पावन कन्या थी

उस घर से मैं विदा हो गई

माॅ इतना क्यांे क्रूर हो गई।


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